पहाड़ों की सुबह

पहाड़ के गाँव में सुबह जल्दी हो जाने वाली हुयी।

सुबह 5 बजे से बरसात शुरू हो गयी थी, लेकिन आज के सुबह के काम की शुरुआत लगभग 5:45 पे शुरू हुयी। आज चूँकि कुछ दुरी में रहने वाले जग्गु  की बहन की शादी थी, और वहाँ न्योता लिखाने भी जाना था तो सब कुछ जल्दी जल्दी करके जाने का प्लान बनाया गया।

आज बाहरी दीवारों को सफ़ेदी करना, टीन की छतों को लाल रंग करना, तुलसी के पत्ते तोड़ना, एक फ़िशपोंड कम पोल्ट्री शेड की तैयारी, कुछ खेतों की मरम्मत का काम शुरू किया।

हाथों में आज पेंटब्रश, दराती, घन (sledgehammer), हथोड़ी, और दिन में एक बार खाना बनाते समय छांछ का ग्लास भी आया (दोपहर में, Salted छांछ आपकी जिंदगी के दिन बड़ा देती है)। बहरहाल जग्गु के घर जाके मिलना ज़रूरी था, इसलिए कि कल उसके छोटे भाई की बारात भी जानी है तो उसको भी आज ही बधाई देके आ गए।

धूप छांव के खेल में समय का ध्यान नहीं रहा और लगा शायद ज्यादा ही हार्डवर्क हो रहा है, लेकिन फिर बचीराम जी के शब्द याद आ गये “हो गया हो, जैसा अच्छा लगे वैसा करना हमेशा”। तो फिर अब ऐसा है, आज के सारे काम कल किए जाएँगे। पहाड़ वैसे भी ये सब work-pressure टाइप की छिछालेदरी से बहुत बड़े हैं, एक दिन लेट होने से माफ़ कर ही देंगे। ये भरोसा या निश्चिंतता ही पहाड़ का सुख है। कल फिर से शुरू करता हूँ एक और दिन पहाड़ में।


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