पहाड़ का हरा सोना बांज (ओक) विलुप्ति की कगार पर


कभी उत्तराखंड में बांज (ओक) के पेड़ का सभी पहाड़ो के जंगलो में राज हुआ करता था बांज के पेड़ से पहाड़ो का तापमान बहुत कम रहता था गर्मी के दिन भी सर्दी के लगा करते थे बांज की लकड़ी इसके पत्ते पहाड़ी जीवन के लिए बहुत उपयोगी हुआ करते थे। लेकिन आज ये पेड़ कुछ ही सिमित क्षेत्रों में सीमट कर रह गए है।

आस-पास के पुराने बुजुर्ग बताते है की पहले पहाड़ के जितने भी क्षेत्र थे यहां पर इन पेड़ो की बाहुलियता थी बाद में ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेज़ो ने चीड़ के वृक्षारोपण को व्यावसायिकता की दृष्टि से महत्ता दिये जाने के कारण बांज के वन सीमित क्षेत्र में ही रह गये हैं। आज जनसंख्या बहुल क्षेत्रों में बांज और इसकी विभिन्न प्रजातियो के जंगल सिमट कर रह गये हैं। आरक्षित वनों को छोड़कर बांज के जंगलों हालत अत्यन्त दयनीय है। जिससे हिमालय के पर्यावरण व ग्रामीण कृषि व्यवस्था में इसका प्रभाव पड़ पर रहा हैं।

जंगलों में पशुओं की मुक्त चराई से भी बांज के नवजात पौधों को बहुत नुकसान पहुंचता रहा है।इसके अलावा उत्तराखंड में कई स्थानों पर चाय और फलों के बाग लगाने के लिये भी बांज वनों का सफाया किया गया।नैनीताल के भवाली,रामगढ़, नथुवाखान, मुक्तेष्वर, धारी ,धानाचूली, पहाड़पानी व भीड़ापानी तथा अल्मोडा़ के पौधार, जलना,लमगड़ा,शहरफाटक,बेड़चूला,चौबटिया,दूनागिरी,पिथौरागढ के चैकोड़ी,बेरीनाग व झलतोला, टिहरी के चम्बा, धनोल्टी, पौडी के भरसाड़ तथा चमोली के तलवाडी़,ग्वालदम व जंगलचट्टी सहित कई स्थानों में जहां आज सेब, आलू व चाय की खेती हो रही है वहां पहले बांज के घने वन थे। सरकारी कार्यालयों में लकडी़ के कोयलों की पूर्ति के लिये भी पूर्वकाल में बड़ी संख्या में बांज के पेड़ काटे गये।

इन्ही पेड़ो की जगह आज कल चीड़ का पेड़ लेता जा रहा है जिसके गुण बांज के पेड़ के सीधे उलटे है। आज कल पहाड़ो पर बस यही पेड़ अधिकतर दिखते है। होने को तो यह भी एक पेड़ ही है।  लेकिन इसका एक अवगुण यह की यह अपने आस पास की जमीन से पानी पूरा सोख लेता है। उस जगह को पूरा सुखा देता है। जिससे अन्य पेड़ पौधे इस पेड़ के आस-पास नहीं उग पाते  है।

इन्ही पेड़ो की वजह से आज पहाड़ो में उपराऊ में खेती नहीं होती है। क्योकि खेतो में हमेशा नमी नहीं बनी रहती है। भूमिगत जलस्तर भी काफी नीचे चला गया है जिसके कारण कई सारे जल स्त्रोत सूख गए है।  हालांकि इसके अन्य कारण मौसम परिवर्तन ,समय पर बारिश न होना भी है।  लेकिन चीड़ का पेड़ भी इसका एक बड़ा कारण है।

बांज से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य :

  • बांज एक शीतोष्ण कटिबन्धीय वृक्ष है जिसका वानस्पतिक नाम Quercus है। पुरे विश्व में इसकी 40 प्रजातियां पायी जाती है , लेकिन उत्तराखंड में इसकी 5 प्रजातियां (सफ़ेद ,हरा या मोरु,भूरा या खरस , फल्यांट तथा  रियांज) पाई जाती है। 
  •  इस आदि  वृक्ष को राज्य में शिव  की जटा कहा जाता है जो की राज्य की नदियों को अपने मैं समेटे हुए है।
  • बांज उत्तराखडं की पर्यावरण सुरक्षा एंव जनमानस की उपयोगिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस वृक्ष की जड़ो की असंख्य रोए होती है। जिसके जाल में मिट्टी की मोटी-मोटी परतो व पानी को संरक्षित करने की अपार क्षमता होती है।
  • एक अनुमान के अनुसार बांज के एक वयस्क वृक्ष की जड़ो तथा उसमें संरक्षित मिट्टी में 3.5 घन मीटर पानी को रोके रखने की क्षमता होती है।
  • एक अन्य अनुमान के अनुसार एक बांज का वयस्क वृक्ष अपने जीवन काल में 1,40,00,000 रूपये का पर्यावरणीय लाभ पहुँचता है। यह लाभ ऑक्सीज़न , पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण , भूक्षरण की रोकथाम , उर्वरता का स्थायित्व ,पानी का परिष्करण ,आद्रता और जलवायु निंयत्रण , चिड़ियों तथा अन्य जन्तुओ का आश्रय , प्रोटीन परिवर्तन आदि के रूप में मिलता है।
  • इसकी लकड़ी का उपयोग ईंधन , कृषि यन्त्र  निर्माण आदि में किया जाता है।
  • इसके पत्तों का उपयोग पशुओं के चारे तथा जैविक खाद बनाने में किया जाता है।

उत्तराखंड की कुछ गैर सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों ने बांज के जंगलों के संरक्षण व उसके विकास की दिशा में स्थानीय स्तर पर कई सार्थक प्रयास किये हैं।इससे गांव समुदायों में एक नयी चेतना आ रही है। बांज के संरक्षण व विकास के सामूहिक प्रयास हमें अभी से करने होंगे,अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब बांज एक दिन दुर्लभ वनस्पतियों की श्रेणी में शुमार हो जायेगा।

उत्तराखंड के इस लोकगीतः “…नी काटो  नी काटो  झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्डो पाणी…” का आशय भी यही है कि लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, इन बांज के जंगलों से हमें ठण्डा पानी मिलता है

 

 

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