बारिश में ये मौसम और आँखों में नमी नैनीताल के पुराने दिनों की

[dropcap]आ[/dropcap]ज सुबह से बरसात ने मौसम सुहावना कर दिया है। बरामदे मे कुर्सी डाल गरम चाय की प्याली के साथ अतीत की गहराईयो मे गोते लगाना भला लग रहा है… अस्थिर मन और एकाग्रता के अभाव मे सारी सोचे गड़बड़ होती जा रही है… मन बरसात की रुम झुम मे खो भी नही पाता अचानक पुराने दिनो की यादे घेर लेती है।

अभी अभी अपने घर के सदस्यो द्वारा बनाये ग्रुप से बाबूजी, चच्चा और किशोर दा की पुरानी तस्वीर फ़ेसबुक मे साझा की तो खो गया अतीत की गहराईयो मे… पुरानी यादो मे… तल्ली ताल, डिग्री कोलेज जाने वाली चडाई शुरु होते ही रॉक हाउस के ऊपर पीले रग का दुमंजिला हमारा बुधला कोटी कोटेज…

ऊपर कर्नल साह की कोठी…  सामने निरीक्षण भवन…  यह भवन रमेश लाल साह जी से आनन फ़ानन मे बब्बा द्वारा हिमालया होटल छोड़ने के उपरांत खरीदा तो नव निर्माण हेतु था पर आज तक समझ नही आया कि क्यो वह भवन नवनिर्माण को तरसता रहा…

बब्बा (दादाजी) हमारे कोटा बाग के पुराने जमींदार थे। जमीन जायजाद, रसूख, दबदबे के हिसाब से ही रहन सहन भी था। दीवाली ख़त्म होते ही नैनीताल से प्रवास कोटा बाग और होली मनाने के बाद गरमियो की पहली आमद के साथ बब्बा अपने लाव लस्कर समेत नैनीताल आ जाते….

गोरा रंग, आकर्षक व्यक्तित्व जब अपने घोडे बादल पर सवार होकर नैनीताल आ रहे होते तो हर निगाह एक बार तो अवश्य ठहर जाती होगी। 

पीछे पीछे होते शिबुवा शिकारी और राशन पानी से भारे हुए घोडे. घोडे मे भर भर के आम और लीची कोटा बाग से आती और हम सब बच्चे खाना पीना छोड देते।

नाश्ते से लेकर लन्च – डिनर सब आम लीची का होता और तब तक खाना बन्द नही करते जब तक सब समाप्त न हो जाय… आमा को चिन्ता हो जाती के ये बच्चे खाना क्यो नही खा रहे… राज तब खुलता जब आम लीची के डालो मे सब साफ़ हो जाता।

गर्मियो का हम सबको बेसब्री से इन्तजार रहता… मैं तो अपने बाबूजी से मिलने वाले जेब खर्च को गर्मियो के सीजन मे खर्च करने हेतु बचा कर रखता था…

सभी बुवाए उनका परिवार, चच्चा चाची बच्चे सब लोग मिलाकर परिवार मे सद्स्यो की संख्या चालीस पचास हो जाती होगी,आमा सुबह चूल्हे मे जाती विभिन्न हरदिल अजीज व्यन्जनो से सारे मेहमानो का स्वागत होता… इतना धेर्य, शालीन व्यव्हार पता नही हमारी राजमाता सरीखी आमा ने कहा से पाया था कि उनका मान मनुहार से खाना खिलाना मुझे आज भी याद आता है।

रस भात से लेकर निरामिष व्यन्जनो तक जो स्वाद आमा के बनाये खाने मे मिला करता था वो मुझे आज तक नही मिला…

किसी भी चीज की आवश्यकता हो आमा के लिये मैं विशेष था… इधर मुह से निकला उधर जरुरत पूरी।

कोटा मे कटहल पपीतो के ठेके का तो पूरा पैसा आमा सीधे मेरे हाथ मे रख देती थी…

लेखनी का तारतम्य टूट गया… पडोसी धर्म निभाने मे… पूरे आधा घंटे कोरोना पर और उसके बाद मौसम पर पडोसी भाई साहब से बात हुई…
अब आगे क्या लिखू…

फिर कभी जब आज की तरह हल्की हल्की बारिश होगी… बाहर केवल मे होन्गा मेरी कुर्सी होगी और होगी गरम चाय की प्याली… और हाँ सुमन भी आज की तरह घोडे बेचकर सो रही होगी… मेरे विचारो की आवाजाही पर कोई प्रतिबन्ध नही होगा… तब लिखूंगा… आमीन


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