वो थकान भरा दिन

साल 1999

 

[dropcap]मैं [/dropcap]बीकॉम फाइनल ईयर का स्टूडेंट था, और एक स्टेशनरी फर्म में काम करता था। कॉलेज क्लासेस मेरी शुरू होती थी सुबह 7:25 पर, और समाप्त होती थी 9:55 पर। मेरा रूटीन कुछ ऐसा था – सुबह 7 बजे घर से निकलता था, 7:20 पर कॉलेज, 9:55 में कॉलेज से निकलता था और 10:00 बजे दुकान जहां मैं काम करता था।
दुकान से स्टेशनरी का सैंपल, जैसे कि पेन, पेंसिल, फाइल, स्टेपलर, पिन, स्टांप पैड, जेरॉक्स पेपर, प्रिंटिंग पेपर इत्यादि लेकर अपने साइकिल से निकल पड़ता था, और बैंक व ऑफिसेस आदि को विजिट करता था। सीजन में स्कूल, कॉलेज, कोचिंग इंस्टिट्यूट इत्यादि भी विजिट करता था। स्टेशनरी की ऑर्डर लेता था। 2:00 बजे घर जाता था, खाना खाने के लिए। 3:00 बजे फिर वापस दुकान।  जो आर्डर मिली होती थी, वह सामान बाहर निकलवाता था। और फिर उनको डिलीवरी देने के लिए जाता था।  5:00 बजे तक वापस फिर दुकान। 5:00 बजे से 8:00 बजे तक काउंटर पर होता था।  उस समय कस्टमर्स के भीड़ भी होती थी। 8:00 बजे दुकान बंद होती थी, 8:30 बजे तक घर।  इस तरह से पढ़ाई के साथ-साथ मेरी job भी चल रही थी। दुकान के मालिक का बेटा, कॉलेज में मेरा सीनियर हुआ करता था, इसलिए मुझे थोड़ा समय, जरूरत पड़ने पर मिल जाता था।
एक बार मैं, एक नॉन बैंकिंग फाइनेंस ऑफिस में पहुंच गया, मैंने सोचा यहां कुछ बिजनेस हो सकता है। ऑफिस के मैनेजर ने मुझे प्रिंटिंग के सैंपल दिखा कर रेट पुछा। उनकी रिक्वायरमेंट कुछ प्रिंटेड पेपर्स की थी, मैंने कहा हो जाएगा। सैंपल लेकर अपनी दुकान पहुंचा। मालिक से प्राइजिंग ले कर, मैंने client को फोन करके प्राइस बता दिया। उनका कहना था कोटेशन लेकर के आओ। मैंने कोटेशन पहुंचाया। करीब डेढ़ लाख रुपए की ऑर्डर थी। उस समय के हिसाब से यह एक बड़ा आर्डर था। उन्होंने आर्डर फाइनल करके मुझे एडवांस दे दिया। मैं आर्डर लेकर दुकान वापस आ गया, सभी खुश हो गए।
तीन दिन में प्रिंटिंग भी हो गई। कुल 50 कार्टन माल था। अब वक़्त था डिलीवेरी देने का। एक ठेले रिक्शे पर माल डलवाया। उसको रस्सी से बंधवा कर चल पड़ा। आगे-आगे रिक्शावाला और उसके पीछे पीछे मैं साइकिल से। लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद, एक मिनी ट्रक वाले ने रिक्शा को रगड़ दिया। रिक्शा पलट गई, रिक्शा वाला गिर पड़ा, उस बेचारे की कोहनी और घुटने में थोड़ी चोट आई। रिक्शे का एक पहिया टेढ़ा हो गया था, और कार्टनस सड़क पर गिर गए।
मैं साइकिल खड़ा कर तुरंत रिक्शा वाले के पास पहुंचा। ट्रक वाला तो फरार हो चुका था, रिक्शावाला गिरा पड़ा था, उसे उठाया। कुछ लोग आ गए थे, उनकी मदद से रिक्शा को सीधा किया। पहिए को ठीक करने की कोशिश की, थोड़ा ठीक हुआ, दोबारा 50 कार्टन रिक्शे पर लादे। रस्सी टूट गई थी, फिर से जोड़कर बांधा। रिक्शे के पीछे धक्के मारते हुए, लगभग 2 किलोमीटर आगे, नन बैंकिंग फाइनेंस के ऑफिस पहुंचा।
ऑफिस फर्स्ट फ्लोर पर थी। रिक्शा को धक्के मारते हुए मैं पसीने से लथपथ था। सांसे तेज चल रही थी, और धड़कन भी बढ़ी हुई थी। लगभग 20 किलो का एक कार्टन था। एक कार्टन को लेकर मैं हाँपते थे हुए ऊपर पहुंचा। ऊपर पहुंचकर मैंने मैनेजर को बताया – सर आपका किये हुए ऑर्डर का के अनुसार मटेरियल आ गया है। अगर आप दो एक बंदे दे देते हैं, तो हम सामान उप्पर पहुंचा देंगे। मैनेजर ने साफ साफ मना कर दिया, कहा डिलीवरी की कमिटमेंट है, आपकी रिस्पांसिबिलिटी ऊपर चढ़ाने की है। खैर मैं चुपचाप कार्टन ऊपर चढ़ाने लगा, थोड़ी देर में रिक्शावाला भी मेरी मदद करने लगा। लगभग 20 मिनट में 50 कार्टन हमने उप्पर पहुचा दी। सात-आठ कार्टन में गिर जाने से कुछ स्क्रैचेज आ गई थी। हालांकि अंदर का पेपर बिल्कुल सही था। मैनेजर ने मुझे खरी-खोटी सुनाई, धमकियां भी दी – कि हमारे पैसे काटेगा, मैं और रिक्शावाला लड़खड़ाते कदमों से कार्टन रख रहे थे, और मैनेजर और उसके तीन क्लर्क हमारे ऊपर हंस रहे थे। मैनेजर ने रिसिविंग देने से मना कर दिया, यह कहकर कि पहले वह कार्टन बदलो। मैं वापस साइकल से अपना गोडाउन पहुंचा। दस नए कार्टन लिए, उनके ऑफिस पहुंचा, कार्टन बदल कर दिया। तब कहीं जाकर मैनेजर ने मुझे रिसीविंग दी।
तो ये था, जिंदगी का एक और अनुभव। वास्तव में ऐसे अनुभव ही हमे विनम्र बनाते हैं, और भविष्य के लिए तैयार करते हैं, कि हमें दूसरों से कैसा व्यवहार नहीं करना।

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