अनजान सही, तो भी बताना होता है, रिश्तों को कभी यो भी निभाना होता है!

[dropcap]ह[/dropcap]र साल की तरह इस साल भी शिक्षक दिवस पर सकुचे शरमाये से हम हाँ पर हाँ मिलाये जा रहे थे। वैसे तो हमारे घर का माहोल रोज ही शिक्षक दिवस सरीखा होता है जहा हमारी भूमिका एक अच्छे विद्यार्थी की होती है और अच्छा विद्यार्थी अपने शिक्षक की आज्ञा की अवहेलना तो कर ही नहीं सकता, पर इस बार का शिक्षक दिवस कुछ ख़ास था।

श्रीमतीजी की सेवानिवृति का अंतिम माह। शिक्षक दिवस की तैयारियां जोरो से चल रही थी। नेट पर अच्छी सी कविता से लेकर साड़ी कौन सी पहनूंगी सवाल के जवाब बहुत शालीनता और धैर्य के साथ देने का प्रयास कर रहा था। लेकिन हर बात की एक सीमा होती है मुझे सामने पाकर शुरू हो गया साड़ी का चयन, अलमारी से साड़ियों के निकलने का अंतहीन क्रम एवं हर साड़ी का अपना एक गौरवमय इतिहास।

ये पटोला ग्वालियर जब सेमिनार में गयी तब फलानि मैडम ने खरीदवाई थी। फिर कसीदे उन मैडम की पसंद के बारे में और ऐसी तस्वीर बना देती जैसे उन मैडम से सलीकेदार साडियों के चुनाव में माहिर कोई नहीं हो सकता।

कांजीवरम साडी जब इनकी फला मित्र फलां जगह गयी तो इनके लिए लेकर आयी और उसके बाद उस मित्र का पूरा इतिहास। चिकेन बनारसी तांत शिफ़ोन और पता नहीं क्या क्या। सुनते सुनते तो मेरे मन मस्तिस्क ने काम करना बंद कर दिया था। सुबह पता चला कि साड़ी चयनित हो गयी है अब फिर मेरी सलाह की आवश्यकता आन पड़ी कि पहनू कौन सी।

अभी भी चार साडियों में एक का चयन बाकी था। मन तो कर रहा था कि अल्मोड़ा भाग जाऊं और नंदादेवी का मेला देखकर ही लौटू पर श्रीमतीजी का सेवा में आखिरी शिक्षक दिवस सामने आ गया और भावनाओ में बह कर हमने भी ठान ली कि इस बार तो पति धर्म निबाह कर ही रहेंगे, चाहे कितना भी सुनना पड़े, पर अच्छे और ख्याल रखने वाले पति की तरह श्रीमतीजी को साड़ी का चयन करवा कर रहेंगे।

फिर आयी शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या, मेरे सहयोगात्मक रवैये से उत्साहित उन्होंने पुरानी चयनित चार साडियों को कैंसिल कर नए सिरे से चयन का प्रस्ताव रखा। यहाँ अगर में अपनी भावनाओ में बहता, तो सारी रात इतिहास की क्लास चलती इसलिए तर्क-कुतर्क से राजी करा के चयन उन चार साड़ी में ही हो जो पहले से चयनित है और कसीदे भी कसे उन साडियों की प्रसंशा में, बात मानी गयी और अहमदनगर बेटी को भी इस चयन में शामिल करने का प्रस्ताव श्रीमतीजी की तरफ से आया।

तुरंत फ़ोन मिला नेहा से संपर्क साधा गया और ज्ञात हुआ कि शिक्षिका बेटी भी इसी चयन प्रक्रिया में व्यस्त है। फिर क्या था खूब गुजरी जब मिल बैठे दीवाने दो। आधे घंटे तक एक दुसरे से अपनी साड़ी की तारीफ के प्रयास फ़ोन पर चलते रहे। बातें खत्म होने पर वही प्रश्नवाचक शब्द कौन सी पहनूं। अब लगा कि मामला गंभीर होता जा रहा है और समस्या नहीं सुलझी तो समस्या विकराल रूप ले लेगी। नींद के झोंको से उबासियो का आना प्रारम्भ हो गया और अंत में हार मान मुझे सोने की अनुमति मिल गयी।

सुबह सुबह श्रीमती जी स्कूल चल पड़ी। जब निकल गयी तब ख्याल आया कि ये वो उन साडियों में तो नहीं जो चार कड़ी मेहनत कर सेलेक्ट की गयी थी, घर वापसी पर पता चला के ये साड़ी कभी सालो पहले अच्छे मूड में मेरे द्वारा ही लाई गयी थी।  इस बात को जब श्रीमती जी ने स्वीकारा कि ये पुरानी साड़ी specially इस कारण के मुझ नाचीज द्वारा लाई गयी तो बस जनाब दिल खुश हो गया और क्या चाहिए था बसर के लिए।  हैप्पी टीचर्स डे


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