संडे के बाद आता – जालिम मंडे

0
240

Monday से वैसे तो कोई शिकायत न है, बस कसूर इसका इतना भर है कि ये सन्डे के बाद आता है और स्कूली दिनों से ही मंडे का इतना खौफ दिल में बैठ गया कि अब, जब ना तो स्कूल है, ना कॉलेज, फिर भी ये दिन अच्छा नहीं लगता।

अब जब, कई जगह में ये सुनता/ पढ़ता हूँ कि स्कूली (या बचपन के) दिन ही अच्छे थे…, अच्छे! अजी काहे की अच्छे, कैसे अच्छे! अच्छे होते होंगे उनके लिए … मेरे जैसों के लिए जिनको, घर वाले घर से धक्के देकर स्कूल भेजते थे, और स्कूल वाले मासाब कॉपी पर लाल कलम से नोट I, II, .. [सैमसंग वाला तो बाद में आया] लगा के घर भेजते थे,.. क्या थे, मैं ही समझ सकता हूँ।)। न खुद की मर्जी से कहीं जा सकते थे, ना कुछ खरीद सकते थे, ख्वाहिशे भले ही नन्ही सी हो, पर वो थी तो… और उनका पूरा होना भी एक महाभारत होता था।

मंडे के लिए, मैं इतना पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ कि, अब तो जिस मंडे को छुट्टी भी हो, उसके बावजूद भी मंडे दिल को नहीं भाता। और,… और इतना ही नहीं अगले दिने मंडे होने की ही वजह से, मैं कभी मुझे मिला सन्डे एन्जॉय नहीं कर पाया।

सन्डे से ज्यादा और हमेशा ही मुझे फ्राइडे और सैटरडे लुभाये है। आज आ गया फिर से एक बार फिर… सोते सन्डे के बाद अंधी रेस में भागता- दौड़ता, कभी गिरता, गिर के फिर संभलता मंडे (क्यूंकि/ बिकॉज़ दियर इस नौट, एनी अदर आप्शन except, accepting इट)। विश यू हैव अ ग्रेट वीक स्टार्ट, डोन्ट टेक टू मच पेनिक, होप फ्राइडे विल कम सून अगेन फॉर श्योर।


उत्तरापीडिया के अपडेट पाने के लिए फ़ेसबुक पेज से जुड़ें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here